Waqf Amendment Bill : वक्फ बिल पर JDU में फूट, बुरे फंस गए Nitish Kumar

मोदी सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा से वक्फ बिल तो पास करा लिया, लेकिन इससे BJP की सहयोगी पार्टियों में खलबली मच गई… NDA की कई पार्टियों में बगावत शुरु हो गई। JDU, RLD, LJP(R) में नेताओं के इस्तीफे की झड़ी सी लग गई।
जहां एक तरफ बिहार के सीएम नीतीश कुमार की पार्टी में वक्फ संशोधन बिल का समर्थन करने पर जेडीयू के कई नेताओं ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। तो वहीं जयंत चौधरी की पार्टी RLD और चिराग पासवान की पार्टी LJP(R) में भी नेताओं के इस्तीफे का दौर जारी है। एक के बाद एक…. कई मुस्लिम नेता वक्फ बिल के विरोध में इस्तीफा दे रहे हैं। और कह रहे हैं कि इन कथित सेक्युलर पार्टियों का चेहरा संसद में बेनकाब हो गया। आज जब मुसलमानों को इन नेताओं का सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। तभी कौम के इन तथाकथित ठेकेदारों ने उनकी पीठ में खंजर घोंप दिया। जिन नेताओं ने रमज़ान में टोपी पहनकर इफ्तारी की थी, उन्होने ही ईद के बाद मुसलमानों को टोपी पहना दी। आज के FACT POST में बतांएगे कि आखिर किन नेताओं ने वक्फ बिल का विरोध जताते हुए पार्टी को अलविदा कह दिया। साथ ही बताएँगे कि आखिर नीतीश कुमार की ऐसी क्या मजबूरी थी, कि JDU को वक्फ बिल का समर्थन करना पड़ा।
नीतीश कुमार की ओर से वक्फ बिल को समर्थन देने से नाराज अब तक 7 मुस्लिम नेताओं ने जेडीयू से इस्तीफा दे दिया है.. पार्टी में एक के बाद एक हो रहे इस्तीफे ने नीतीश कुमार की टेंशन बढ़ा दी है। क्योंकि इसी साल के आखिर में बिहार में विधानसभा चुनाव होने जा रहे है। लेकिन सवाल है कि आखिर चुनावी साल होने के बावजूद, नीतीश कुमार ने ये कदम क्यों उठाया…. आईए जानते है कि आखिर अपनी छवि और राजनीति को करीने से साधने वाले नीतीश कुमार ने चुनावी साल में इतना बोल्ड डिसीजन क्यों लिया है, जो चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल अब तक जानकारों का ये मानना था कि चुनावों के मद्देनजर JDU मुस्लिम वोटर्स को नाराज नहीं कर सकती, इसलिए वो ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ती, जहां उसे मुस्लिम वोटर्स को साधने की जरूरत महसूस होती है। लेकिन 2023 की जातीय गणना के आंकड़ों पर नज़र डाले तो बिहार में 17.7 फीसदी मुसलमान हैं। जिनका असर बिहार की करीब 47 सीटों पर है। बावजूद इसके नीतीश कुमार ने वक्फ बिल पर मोदी का साथ दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो पार्टी अध्यक्ष ने अपने सांसदों को क्लीयर मैसेज दे दिया था कि आप मुस्लिम वोटों की चिंता ना करें। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि नीतीश कुमार का मुस्लिमों से ही मोह भंग हो गया? और उन्होने बिल का समर्थन करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई। आईए इसके पीछे के FACT को समझते है, आंकड़ों के साथ…
दरअसल जेडीयू के नेताओं का मानना है कि, नीतीश ने मुस्लिमों के लिए कई काम किये, लेकिन मुसलमानों ने नीतीश का साथ नहीं दिया। क्योंकि जब 2013 में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के विरोध में 17 साल पुराना NDA का गठबंधन तोड़ दिया था और फिर 2014 का लोकसभा चुनाव उन्होंने अपने दम पर लड़ा था। तो उस वक्त नीतीश को उम्मीद थी कि अपने कोर वोट बैंक के अलावा उन्हें मुसलमानों का भी साथ मिलेगा, लेकिन ये उनका भ्रम साबित हुआ। उन्होंने 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन महज़ 2 सीट ही जीत सके थे। इनमें एक सीट थी नालंदा और दूसरी सीट थी पूर्णिया। बाकी 36 सीटों पर 2014 में उनकी पार्टी के कैंडिडेट की हार हुई थी। ये ही वो वक्त था जब नीतीश कुमार का दिल टूट गया था। इसके अलावा एक वजह ये भी है कि, 2024 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में नीतीश कुमार की पार्टी के एक भी मुस्लिम कैंडिडेट जीतने में कामयाब नहीं हो पाए थे। 2015 विधानसभा चुनाव में आखिरी बार JDU से 5 मुस्लिम विधायक जीते थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में JDU के एक भी मुस्लिम सांसद नहीं जीत पाए थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में JDU ने 11 मुस्लिम कैंडिडेट को मैदान में उतारा, लेकिन एक भी कैंडिडेट जीतने में कामयाब नहीं रहा। यही हाल 2024 के लोकसभा चुनाव में भी हुआ। JDU का एक भी कैंडिडेट चुनाव नहीं जीत पाया।
यानी JDU मान चुकी है उसे मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला… क्योंकि नीतीश कुमार ने 2005 से लेकर अब तक बहुत कोशिश की, कि उन्हें मुस्लिम वोट मिले। 2010 तक थोड़ा बहुत सपोर्ट मिला भी। इसके बाद मुस्लिम.. नीतीश से दूर होते चले गए। ऐसे में अब JDU की टॉप लीडरशिप ने इस बात को कबूल कर लिया है कि बिहार में मुस्लिम वोट एकतरफा है। ये कुछ भी कर लें, बीजेपी से अलग हो जाएं, आरजेडी के साथ आ जाएं। इन्हें मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला है। ऐसे में इन्होंने बीजेपी का साथ देने का निर्णय लिया। और नीतीश कुमार ने वक्फ संशोधन बिल पर खुलकर सरकार को समर्थन करने की अपनी सहमति दे दी। उनका मानना था कि हम मुसलमानों के लिए काम करते हैं, लेकिन वे हमारा सपोर्ट नहीं करते हैं।
आप याद कीजिए साल 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव… इस चुनाव में RJD और कांग्रेस के महागठबंधन को 75% मुस्लिम वोट मिले थे। वहीं, BJP और JDU वाले NDA को 5% और चिराग पासवान की पार्टी LJP(R) को 2% मुस्लिम वोट मिले थे। अब चूंकि 2020 विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी तीसरे नंबर की बन गई थी। औऱ 2005 विधानसभा चुनाव के बाद ऐसा पहली बार हो रहा था जब नीतीश कुमार को बीजेपी से भी कम सीटें हासिल हुई थीं। इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार चिराग पासवान को माना गया। 2020 के चुनाव के बाद नीतीश कुमार भले सीएम बने रहे, लेकिन उन्हें दो बार पाला बदलना पड़ा। पहले बीजेपी का साथ छोड़कर वे RJD के साथ गए। इसके बाद दोबारा वे बीजेपी के साथ आए। अब चूंकि बिहार में अगले 6 महीने में विधानसभा का चुनाव होना है। नीतीश कुमार की सेहत पर पहले से ही सवाल उठ रहे हैं। JDU को बिहार में अपनी स्थिति को मजबूत रखने के लिए एक पुराने और भरोसेमंद साथी की जरूरत है। ऐसे में बीजेपी से ज्यादा भरोसेमंद उनके लिए कोई और पार्टी नहीं हो सकती है। मतलब साफ है कि, कमजोर नीतीश को 2025 के लिए बीजेपी का साथ जरूरी है। यही वजह है कि नीतीश ने संसद में वक्फ बिल का समर्थन किया।
हालांकि इससे पहले नीतीश अलग अलग मौकों पर बीजेपी से अलग स्टैंड ले चुके हैं। ज़रा याद कीजिए वो CAA NRC का दौर… जब हर तरफ CAA – NRC विरोध के स्वर गूंज रहे थे। उस दौरान CAA को समर्थन देने के बाद नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड ने NRC का विरोध किया था। सीएम नीतीश कुमार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि, बिहार में NRC लागू नहीं होगा और वे NPR पर भी विरोध दर्ज करा चुके हैं। NPR पर नीतीश यह स्पष्ट कर चुके हैं कि 2010 की तर्ज पर ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार होना चाहिए। हालांकि नीतीश कुमार ने पहले CAA का भी विरोध किया था, लेकिन बाद में लोकसभा में जेडीयू ने इस बिल का समर्थन कर दिया था। इसके अलावा धारा 370 हटाए जाने को लेकर भी जेडीयू के अंदर इसी तरह का विरोधाभास देखने को मिला था। 5 अगस्त 2019 को धारा 370 हटाए जाने को लेकर वोटिंग के दौरान जनता दल यूनाइटेड के सभी सांसदों ने दोनों सदनों से वॉकआउट करते हुए, एक तरह से नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से लाए गए इस बिल का विरोध ही किया था। अब तक आपको समझ आ गया होगा कि, नीतीश ने वक्फ बिल का समर्थन क्यों किया। यानी नीतीश को मुस्लिम वोट बैंक की दरकार नहीं है। ऐसे में अब उन्हे बीजेपी, चिराग पासवान की पार्टी LJPR और मांझी की पार्टी के वोटबैंक पर निर्भर रहना होगा।